गुरुवार

हिन्दी साहित्य का आधुनिक इतिहास प्रलेस का इतिहास है – डा. खगेन्द्र ठाकुर

बायें से - बिहार प्रलेस के महासचिव राजेन्द्र राजन, कथाकार डा. संतोष दीक्षित, बिहार प्रलेस के अध्यक्ष डा. ब्रजकुमार पाण्डेय, वरिष्ठ आलोचक डा. खगेन्द्र ठाकुर, डा. रवीन्द्रनाथ राय एवं वरिष्ठ कवि अरुण कमल

कम्युनिस्टों ने गलती की लेखकों ने नहीं, पार्टी ने जातिवादियों से सांठगांठ की लेखकों ने नहीं – अरुण कमल

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय सम्मेलन , जो कि 11-12 फरवरी, 2012 को पूर्णिया में संयोजित होने जा रहा है, के कार्यक्रम की विस्तृत रूपरेखा निर्मित करने हेतु राज्य कार्यसमिति की एक विशिष्ठ बैठक डा. ब्रजकुमार पाण्डेय  की अध्यक्षता में जनशक्ति भवन, अमरनाथ रोड, पटना के सभागार में 11 दिस. को  आयोजित की गई। संचालक बिहार प्रलेस के महासचिव राजेन्द्र राजन ने किया।
बैठक का आरंभ महत्वपूर्ण दिवंगत साहित्यकारों, कलाकारों संस्कृतिकर्मियों के शोक प्रस्ताव से किया गया। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की 75वीं वर्षगांठ जो लखनऊ में मनाई गयी थी, इसकी विस्तृत विवेचना वरिष्ठ आलोचक डा. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि लखनऊ में प्रलेस की जो 75वीं वर्षगांठ मनाई गयी , उस मौके पर डा. नामवर सिंह का भाषण प्रलेस के भविष्य के दृष्टिकोण से सही नहीं था। मुझे थोड़ा अजीब लगा जो नामवर जी ने कहा कि प्रलेस की सौवीं सालगिरह पर चर्चा होनी चाहिए। नामवर जी ने वहाँ पर आरक्षण के विरोध में भी कहा। उनके कहे पर थोड़ा विवाद भी हुआ। जबकि इस अवसर पर मेरा विचार था कि आज जब हमारे शत्रु हम पर टूट पड़े हैं, तो ऐसे वक्त में ऐसे विचारों की जरूरत नहीं हैं। सौवी सालगिरह तक हम रहें न रहें लेकिन इतना विश्वास है कि प्रलेस की सौवीं सालगिरह भी मनाई जायेगी। मेरा विचार था कि बड़ी जाति बच्चे अगर भीख मांगेंगे तो आरक्षण के कारण नहीं बल्कि पूँजीवाद के कारण। अभी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम प्रलेस विरोधी तथा वाम विरोधी ताकतों से सचेत रहें। डा. खगेन्द्र ठाकुर ने आगे कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ का इतिहास जब भी लिखा जायेगा तो हमारा लेखन हिन्दी या उर्दू का या किसी अन्य भाषा का, इसी के आधार पर लिखा जायेगा। हिन्दी साहित्य का आधुनिक इतिहास प्रलेस का इतिहास है।
बिहार प्रलेस के महासचिव ने कहा कि वर्तमान की चुनौतियों से हम जूझते रहे हैं और जूझते रहेंगे। उन्होंने कहा कि सत्ता के बहकावे से हम कैसे खुद को बचाये हमें यह भी सोचना है।
साहित्यकार कर्मेदु शिशिर ने चिंता जाहिर की कि बिहार सरकार ने साहित्यकारों को सम्मानित करने का जो तरीका अपनाया है वह गलत है, इसका विरोध किया जाना चाहिए।
कथाकार डा. संतोष दीक्षित ने कहा कि प्रलेस का जो मूल्यांकन होगा, वह प्रगतिशील साहित्य के आधार पर ही होगा।
बहुचर्चित कवि अरुण कमल ने कहा कि प्रगतिशील लेखक संध बना ही क्यों, इस संघ का गठन 1936 में क्यों हुआ ? वह कारण आज भी जीवित है या नहीं, इस पर भी हमें सोचना चाहिए। इसलिए यह संगठन बना था कि जब पूरी दुनिया गुलाम थी, प्रगतिशील लेखक संघ ने उस गुलामी के खिलाफ आवाज उठाई हमारा बुनियादी लक्ष्य आज भी वही है। कम्युनिस्टों ने गलती की लेखकों ने नहीं, पार्टी ने जातिवादियों से सांठगांठ की लेखकों ने नहीं, जब कभी बुनियादी बातों पर हमले हुए, हमने आंदोलन किये …. प्रलेस किसी पार्टी का नहीं है। हम नस्लवाद, नग्नवाद, पूँजीवाद के विरोध में हैं, रहेंगे।
इस अवसर पर प्रो. रवीन्द्रनाथ राय, अरुण शीतांश (आरा), डा. पूनम सिंह, रमेश ऋतंभर (मुजफ्फरपुर) नूतन आनन्द, देव आनन्द (पूर्णिया), युवा कवि शहंशाह आलम, राजकिशोर राजन, प्रमोद कुमार सिंह, सुमन्त (पटना) व मधेपुरा से अरविन्द श्रीवास्तव ने अपने-अपने सार्थक विचार प्रकट किए।
कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में प्रांतीय सम्मेलन से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गये।
धन्यवाद ज्ञापन राजेन्द्र राजन ने किया।

बुधवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का 14 वाँ राज्य सम्मेलन ... जुटेंगे साहित्यकार ।

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की पूर्णिया इकाई के प्रस्ताव पर दिनांक 11 एवं 12 फरवरी (रविवार) को बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का 14 वाँ राज्य सम्मेलन पूर्णिया में संयोजित होने जा रहा है। जिसमें प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. नामवर सिंह, डा. खगेन्द्र ठाकुर, महासचिव प्रो. अली जावेद, समालोचक चौथीराम यादव सहित अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकार भाग लेंगे। इस प्रान्तीय सम्मेलन की रूपरेखा निर्धारित करने हेतु राज्य कार्यसमिति की एक आवश्यक बैठक दिनांक - 11 दिसम्बर 2011.  रविवार को 12 बजे से प्रान्तीय कार्यालय - केदार भवन (जनशक्ति परिसर, अमरनाथ रोड, पटना -1) में होगी। आप सादर आमंत्रित हैं।
संपर्क: महासचिव (बिहार प्रलेस) मो.- 09471456304.

मंगलवार

नीतीश जी इतिहास से सबक लें: प्रगतिशील लेखक संघ

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल के सदस्य डा. खगेन्द्र ठाकुर, बिहार प्रलेस के अध्यक्ष डा. ब्रज कुमार पाण्डेय एवं महासचिव श्री राजेन्द्र राजन  ने संयुक्त वक्तव्य में कहा कि - राज्य गीत और राज्य प्रार्थना की स्वीकृति देकर नीतीश कुमार ने गणतंत्र की प्राचीन धरती बिहार में जनतंत्र की जगह राजतंत्र कायम करने की ओर कदम बढ़ाया है। इसके रचनाकारों को राजकोष से पुरस्कृत करने की घोषणा से स्वेच्छाचारी ‘राजा’ सदृश्य आचरण प्रदर्शित हुआ है इतिहास गवाह है कि राष्ट्रगाण, राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय झंडा का विकल्प आजादी के बाद केवल पृथकतावादियों ने दिया है। राष्ट्रीय एकता व धर्मनिरपेक्षता के प्रश्न पर बिहार सदैव अग्रणी रहा है, - दुख है कि लोकवादी व समाजवादी माने जाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश जी द्वारा अलोकतांत्रिक निर्णय लिए गये हैं। यह राष्ट्रीय मुख्यधारा से बिहार को विलग करना माना जा सकता है।
विविधतापूर्ण एवं सर्वधर्म समन्वयवादी बिहार का व्यापक उदात्त चरित्र इस कार्य से खंडित होगा। साहित्यकारों को राजदरबारी बनाने को वे लगातार कोशिश कर रहे हैं। सम्मान समारोह किये बगैर कई रचनाकारों को इनके द्वारा राजकीय पुरस्कार के नाम पर मोटी रकम के चेक पहूँचाये गये हैं। लेखकों के स्वाभिमान को सरकारी पैसे के बल पर कमजोर बनाना निंदनीय है।
    बिजली उद्योग और कृषि के क्षेत्र में रंक बने बिहार से रोजगार के लिए पलायन महामारी सदृश्य है। प्रार्थना से नया बिहार नहीं बनेगा यहाँ ‘मालिक’ कौन है और याचक कौन है ? जनता सर्वोपरि है। कभी सम्राट नीरो ने पुराने रोम को जलाकर नया रोम बसाया था वहाँ जनहित की अनेक योजनाएँ भी बनायी थी। उसने साहित्य एवं संस्कृतिकर्मियों को पुरस्कृत करके राजदरबार सजाया था नये अमीरों की तादाद भी बढ़ गयी थी लेकिन जनता से तिरष्कृत होकर उसने आत्महत्या कर ली थी। हम उम्मीद करते हैं कि नीतीश जी इतिहास से सबक लेंगे।    

सोमवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का उद्भव और विकास: भाग- 4.


...विश्वनाथ त्रिपाठी, प्रो. कमला प्रसाद, परमानन्द श्रीवास्तव, प्रो. देवेन्द्रनाथ शर्मा, डा. चन्द्रभूषण तिवारी जैसी बड़ी हस्तियाँ एवं विभिन्न जिलों से आये अनेक रचनाकार, सांस्कृतिकर्मी एवं कर्मठ  साथियों ने भाग लिया। उस समय सूबे का यह सबसे बड़ा आयोजन था। आचार्य शुक्ल पर बिहार में मुंगेर, पटना, औरंगाबाद आदि जगहों पर भी आयोजन हुए। प्रगतिशील आंदोलन की वैचारिक सांस्कृतिक भूमि को उर्वर करने में ऐसे आयोजनों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । 1985 में 12-13 अक्टूबर जमशेदपुर में सम्पन्न आठवें राज्य सम्मेलन ने प्रगतिशील आंदोलन को अभूतपूर्व विस्तार और सांगठनिक सक्रियता दी। उस समय देश में आतंकवादी, अलगाववादी एवं जातिवादी ताकतें साम्रज्यवाद की मदद से भयानक रूप लेती जा रही थीं। उसी दौर में सैकड़ों बेकसूर लोगों के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तथा अकाली नेता लोंगोवाल तक की हत्या हुई। प्रगतिशील लेखक संघ बिहार ने पूरे देश में प्रतिगामी शक्तियों का घोर विरोध किया तथा लेखों एवं अन्य रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकता की भावना के प्रसार का प्रयत्न किया।
    1986 में लखनऊ में प्रलेस के राष्ट्रीय स्वर्ण जयन्ती समारोह के भव्य आयोजन के बाद बिहार के कई जिलों पटना, मोतिहारी, मुंगेर, बेगूसराय, राँची, सासाराम, देवघर, भागलपुर, समस्तीपुर आदि में स्थानीय इकाइयों द्वारा स्वर्णजयंती का आयोजन किया गया। स्वर्णजयंती समारोह शृंखला में ही बिहार प्रगतिशील लेखक संघ ने पटना में 1987 के मार्च महीने में एक सेमिनार का आयोजन किया, जिसमें ‘धर्मनिरपेक्षता और लेखक’ विषय पर डा. नामवर सिंह का महत्वपूर्ण व्याख्यान हुआ। दूसरे दिन ‘हिन्दी कविता के विकास में प्रगतिशील कविता का योगदान ’ विषय पर एक विचारगोष्ठी भी आयोजित की गई।
    बिहार राज्य प्रगतिशील लेखक संघ का नौंवा सम्मेलन 9-10 अप्रैल 1988 को सासाराम में, दसवां सम्मेलन 1994 में पटना तथा ग्यारहवां सम्मेलन 15-16 मार्च 1997 को मुजफ्फरपुर में हुआ। इस सम्मेलन को प्रख्यात आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. खगेन्द्र ठाकुर, वरिष्ठ कवि भागवत रावत, अरुण कमल जैसे महत्वपूर्ण रचनात्मक व्यक्तियों ने विशिष्ठ गरिमा प्रदान की।
    बारहवां प्रांतीय सम्मेलन 23-24 मार्च, 2003 को गोदरगावाँ बेगूसराय में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में प्रसिद्ध आलोचक डा. नामवर सिंह, कालजयी यशस्वी कथाकार कमलेश्वर, डा. खगेन्द्र ठाकुर, अरुण कमल जैसे कई प्रखर व्यक्तियों का आगमन हुआ। इस सम्मेलन की  अभूतपूर्व  सफलता के कारण ही राष्ट्रीय अधिवेशन 2008 के लिए एक बार फिर बेगूसराय को मेजबान बनाया गया।
    बिहार का तेरहवां राज्य सम्मेलन ऐतिहासिक शहर बक्सर में 27-28 अक्टूबर 2007 को अविस्मरणीय अधिवेशन के रूप में सम्पन्न हुआ। प्रलेस राष्ट्रीय महासचिव प्रो. कमला प्रसाद की अध्यक्षता में ‘हिन्दी पट्टी का वैचारिक संकट’ विषय पर काफी महत्वपूर्ण विमर्श हुआ। डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. खगेन्द्र ठाकुर डा. ब्रजकुमार पाण्डेय एवं अरुण कमल सहित कई महत्वपूर्ण लेखकों एवं कवियों ने प्रस्तावित विषय पर अपने विचार रखे। दूसरे दिन काव्य संध्या का आयोजन  भी अभूतपूर्व रहा।
     प्रगतिशील लेखक संघ का चैदहवां राष्ट्रीय अधिवेशन बिहार के गोदरगावाँ (बेगूसराय) में 9-10-11 अप्रैल 2008 को सम्पन्न हुआ। इस ऐतिहासिक सम्मेलन में भारत सहित अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। चार सौ से अधिक लेखकों-रचनाकारों की भागीदारी ने इससमारोह को कालजयी बना दिया। रंगयोद्धा हबीब तनवीर, आलोचक डा. नामवर सिंह, असगर अली इंजीनियर, डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, प्रो. कमला प्रसाद आदि की उपस्थिति में इस महासम्मेलन ने बिहार प्रलेस में नई ऊर्जा का संचार किया, फिर ताबड़तोड़ कई आयोजनों एवं गतिविधियों से बिहार प्रलेस अग्रसर होते रही।
    बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के इन सम्मेलनों ने अराजक समय के विरूद्ध निरन्तर एक बौद्धिक सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण किया है तथा जनतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में जनशक्ति जागृत की है। राज्य की विभिन्न इकाइयों की सक्रियता ने प्रगतिशील आंदोलन को अभूतपूर्व विस्तार दिया है। 

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का उद्भव और विकास - भाग- 3

 ...हटा कर कृश्नचन्दर को महासचिव बनाया गया तो यह आंदोलन सांगठनिक स्तर पर बिखर गया। लेकिन न तो जनता का संघर्ष रुका और न ही प्रगतिशील कवियों का स्वर मंद पड़ा। गाँवों, कसबों और शहरों में अलग-अलग समूह बनाकर जनपक्षधर लेखकों ने अपना संघर्ष जारी  रखा। राजनीति से जुड़े लोग भी प्रलेस के सदस्य बनकर इसकी सक्रियता बढ़ा रहे थे। बिहार की कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता अली अशरफ जैसे लोग माक्र्स, लेनिन और स्टालिन की राजनीतिक दार्शनिक किताबों का उर्दू अनुवाद कर रहे थे। इस बीच बिहार में कई प्रांतीय सम्मेलन भी हुए । पटना, आरा, नवादा, बक्सर, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर, सुल्तानगंज, गया आदि शहर ही नहीं, छोट-छोटे कसबों में भी लेखक और रंगकर्मी सक्रिय रहे। यही कारण है कि 1975 में जब प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्गठन की पहल हुई, तो राष्ट्रीय स्तर का पहला सम्मेलन बिहार के ऐतिहासिक शहर गया में ही आयोजन किया गया।
    प्रगतिशील लेखक संघ का गया सम्मेलन भारत के स्वातंन्न्योत्तर सांस्कृतिक इतिहास में एक अविस्मरणीय अधिवेशन था। विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रगतिशील लेखक आंदोलन के द्रुत विकास को ध्यान में रखते हुए प्रलेस के इस सम्मेलन में संगठन को एक नया नाम ‘प्रगतिशील लेखकों का राष्ट्रीय संघ’ दिया गया। बंगला, मराठी, तेलगु, असमिया, पंजाबी, उर्दू और हिन्दी समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं मे एक सौ से अधिक लेखक इस सम्मेलन में उपस्थित हुए। सम्मेलन में एक घोषणा-पत्र भी प्रस्तुत किया गया, जिसमें लेखकों की भूमिका के संदर्भ में भारत की जनता की आशाओं-आकांक्षाओं को प्रवर्तित किया गया था। इस सम्मेलन में समकालीन चुनौतियों के संदर्भ में लेखक संगठनो की भूमिका पर भी विचार किया गया। इसमें बड़े पैमाने पर  युवा लेखकों की उपस्थिति से नयी ऊर्जा तथा उत्साह का संचार हुआ। इस सम्मेलन में सर्वसम्मति से भीष्म साहनी को महासचिव चुना गया। इस अधिवेशन का विशेष महत्व इस बात को लेकर था कि इसमें प्रायः सभी राज्यों तथा भाषाओं का प्रतिनिधित्व था।
    उसके बाद से बिहार में प्रांतीय इकाई एवं विभिन्न जिलों में स्थानीय इकाइयों का गठन शुरू हुआ। यद्यपि गया में 6 से 9 मई, 75 मे सातवें राष्ट्रीय सम्मेलन से पूर्व राज्य में 5 प्रांतीय सम्मेलन का आयोजन पटना, सुल्तानगंज आदि स्थानों पर हो चुका था पर गया सम्मेलन के बाद बिहार में प्रलेस की गतिविधियों का विस्तार कई दिशाओं में हुआ। 1976 में मसौढ़ा (सारण) में छठा  राज्य सम्मेलन के बाद 1983 में 11- 12 दिसम्बर को बेगूसराय में प्रलेस ने सातवां राज्य सम्मेलन की शानदार मेजबानी की। श्री राजेन्द्र राजन, डा. पी. गुप्ता, डा. अखिलेश्वर कुमार, डा. आनन्द स्वरूप शर्मा, श्री बोढ़न प्रसाद सिंह एवं प्रगतिशील साहित्यकारों की साझेदारी ने इस सम्मेलन को सफलता के शिखर पर पहुँचा दियां इसी क्रम में अप्रैल 1984 में विश्वशांति के संदर्भ में प्रलेस ने बिहार राज्य परिषद् के साथ मिलकर लेखकों का एक राज्य स्तरीय सेमिनार किया, जिसके मुख्य अतिथि राष्ट्रीय महासचिव श्री भीष्म साहनी थे। इस सेमिनार में बाबा नागार्जुन, पटना
विश्वविधालय के कुलपति डा. गणेश प्रसाद सिन्हा, प्रो. देवेन्द्रनाथ शर्मा सहित राज्य के अन्य जिलों से आये अनेक लेखकों, कलाकारों, शिक्षकों, छात्रों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही।1984  में ही बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से 11,12,13 अक्टूबर को पटना में आचार्य शुक्ल जन्मशती सेमिनार का आयोजन किया गया था, जिसके उद्घाटनकत्र्ता डा. नामवर सिंह थे। तीन दिनों के इस सेमिनार में वरिष्ठ कवि शिवमंगल सिंह सुमन, डा. बच्चन सिंह, डा. मैनेजर पाण्डेय,.... क्रमश:..

बुधवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का उद्भव और विकास - भाग- 2

... इसी उर्वर पृष्ठभूमि में जब 1936 में प्रेमचन्द की अध्यक्षता में भारत में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन किया गया तो उसमें तब के युवा चिंतक कवि हृदय जयप्रकाश नारायण सहित बिहार और उत्तरप्रदेश के कई रचनाकारों ने सक्रिय प्रतिभागिता की। इस अधिवेशन में जयप्रकाश नारायण की महत्वपूर्ण भागीदारी के संबंध में प्रगतिशील आंदोलन के सबसे पुराने साथी और प्रलेस के संस्थापक महासचिव श्री सज्जाद जहीर ने अपनी पुस्तक ‘रौशनाई’ में लिखा है- ‘इस कान्फ्रेंस में बाबू जयप्रकाश नारायण और दिल्ली के हिन्दी साहित्यकार बाबू जैनेन्द्र कुमार मुझे खास तौर से याद हैं। जयप्रकाश नारायण बिहार में उनदिनों के उन नौजवान लेखकों और सोशलिस्ट तरक्की पसंदों का नेतृत्व कर रहे थे जिन्होंने बाद में रामवृक्ष बेनीपुरी  के संपादन में हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ का प्रकाशन किया।
    सज्जाद जहीर की पुस्तक ‘रौशनाई’ में प्रेमचंद का एक पत्र सज्जाद जहीर के नाम है जिसमें प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘ मैं पटना जाऊँगा और वहाँ भी प्रलेस की एक शाखा कायम करने की कोशीश करूँगा।’ आगे वे लिखते हैं -‘ बाबू जयप्रकाश नारायण से भी बातें हुई है। उन्होंने प्रोग्रसिव हफ्तावार हिन्दी में प्रकाशित करने की सलाह दी है, जिसकी उन्होंने काफी जरूरत बताई ।’
    इसी पुस्तक में यह भी लिखा गया है कि 1936 में सबसे पहले ‘प्रलेस’ ने ‘गोर्की दिवस’ का आयोजन किया था। इस दिन बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता, लाहौर, बंबई के साथ पटना में भी गोर्की दिवस मनाया गया। हिन्दी क्षेत्र में प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका तैयार करने में प्रेमचंद का महत्वपूर्ण योगदान है। इस अधिवेशन के बाद प्रगतिशील लेखक संघ का मुख्य कार्यालय प्रयाग में खोला गया और शीध्र ही उसकी शाखाएँ भारत के अनेक नगरों में काम करने लगी।
    सूबे में प्रगतिशील आंदोलन की नींव तो उसी समय पड़ गयी लेकिन इसका आधार 1944 में जाकर पटना में आयोजित प्रथम प्रांतीय सम्मेलन में मजबूत हुआ। वह ऐसा समय था जब पूरी दुनिया पर द्वितीय विश्वयुद्ध की काली छाया फैली थी।  युद्ध  की चिंताओं के बीच आयोजित उस प्रांतीय अधिवेशन का दस्तावेजी महत्व है। महाकवि दिनकर उसके स्वागताध्यक्ष थे। उनके स्वागत भाषण में युद्ध के विरूद्ध दुनिया भर के कवियों की चिंताओं की झलक मिलती है। प्रथम विश्वयुद्ध में राष्ट्रवाद की विचारधारा प्रवल थी और यूरोप के कवियों, कलाकरों ने भी उससे पे्ररित होकर अपना पक्ष रखा था। जबकि दूसरे युद्ध तक आते - आते शसकों की स्वार्थ लोलुपता सामने आ गयी थी। राष्ट्रवाद का विभ्रम टूट चुका था। कविता एक नयी जनक्रांति का आह्वान करने लगी थी, दिनकर ने उस पर गंभीर टिप्पणी की है। हिन्दी में आगे चलकर नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे कवियों ने इसी जनक्रांति की धारा को मजबूत किया।
    यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रगतिशील आंदोलन आजादी के बाद कई प्रकार के अन्तर्विरोधों का शिकार हो गया, जबकि 1946 में पूरे देश में बेहद मजबूत जनाधार बन चुका था। देश के बंटवारे का भी इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अन्ततः 1950 के दशक में जब डा. रामविलास शर्मा का... क्रमशः-

शुक्रवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का उद्भव और विकास - भाग- 1

 -पूनम सिंह 
बीसवीं शताब्दी के पहले चरण के समाप्त होते ही प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी ने यदि एक तरफ पूरी दुनिया के संवेदनशील रचनाकारों और बुद्धिजीवियों को गहरे रूप से उद्वेलित किया तो दूसरी तरफ उस समय सोवियत संध की समाजवादी क्रांति ने माक्र्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर संसार के साहित्य में एक नई ऊर्जा का संचार किया जिसके कारण समाजवादी यथार्थवाद के रूप में यथार्थवादी लेखन की एक नई धारा  सामने आई और भारत सहित पूरी दुनिया में एक नये साहित्यक आंदोलन का सूत्रपात हुआ जिसे ‘प्रगतिशील आंदोलन’ के रूप में जाना गया। साहित्य के प्रति एक जीवन्त गत्यात्मक दृष्टि लेकर उस समय विश्व के अनेक साहित्यकारों ने इस प्रगतिशील सोच का स्वागत किया।
    सृजन के क्षेत्र में मैक्सिम गोर्की, मायकोवस्की, बर्नाडशा, टालस्टाय, बर्तोल्त ब्रेख्त, पावलो नेरुदा, नाजिम हिकमत, हेंमिग्वे, गार्सियालोकी से लेकर अपने देश में प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ, नजरुल इस्लाम, जोश, फैज, कृश्नचन्दर, यशपाल जैसे कई महान साहित्यकारों ने इसकी अगुवाई की तथा इसके वैज्ञानिक मानवतावादी-क्रांतिकारी आग्रहों के अनुकूल साहित्य सृजन का प्रयास किया। विचार और चिन्तन के क्षेत्र में एक तरफ मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन, माओ जैसे राजनीतिक अपनी भूमिका निभायी तो दूसरी तरफ प्लेखानोव, रेल्फ,  फाक्स, काडवेल, लूकाच, वेंजामिन जैसे गंभीर साहित्यकारों दे इसके स्वरूप निर्माण ने अपनी सक्रिय भागीदारी दी।
    हिन्दी में प्रगतिशील आंदोलन की सहित्यिक पृष्ठभूमि का निर्माण इसी बलते परिवेश और परिप्रेक्ष्य मे हुआ। हिन्दी कविता की प्रगतिशील धारा समस्त भारतीय साहित्य में आए मूलगत बदलाव की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है, जिसे भारतीय जनता के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुक्ति के आंदोलनों की पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है।
    सन् 1911/12 में बंगाल से अलग होने के बाद बिहार में आधुनिक लेखन तथा नवजागरण की शुरूआत हो चुकी थी। उसके पहले भी, खड़ी बोली में गद्य का तो आंदोलन इसी सूबे के मुजफ्फरपुर शहर से शुरू हुआ था। उन्हीं दिनों महेश नारायण जैसे अपने समय के सबसे प्रयोगशील और आधुनिक कवि सामने आये। देवकीनंदन खत्री की जन्मभूमि और कर्मभूमि भी बिहार ही था। पिछली सदी के तीसरे दशक में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के नेतृत्व में पुस्तकालय आंदोलन का प्रचार हुआ। गाँव-गाँव में पुस्तकालय खुले और गाँव-कसबों के स्तर पर रंगमंडलियों का गठन हुआ। हिन्दी समाज में आधुनिक सांस्कृतिक चेतना के प्रचार में बिहार पीछे नहीं था। रामवृक्ष बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय जैसे महान गद्यकार और विचारक सामने आये, जिसे परम्परा में आगे चलकर दिनकर, नलिन विलोचन शर्मा, रेणु, नागार्जुन, राजकमल चौधरी आदि का नाम आता है। 1920 के ही दशक में पटना जिले के बाढ़ शहर में एक नाटक मंडली सक्रिय थी जिसके अगुआ-रामेश्वर प्रसाद रामने कई नाटक लिखे थे और उनका मंचन भी किया था। हालांकि उनके नाटक अब उपलब्ध नहीं हैं लेकिन रामचन्द्र शुक्ल रचित हिंन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम संस्करण और मिश्रबंधु विनोद में उनकी चर्चा है। क्रमशः...