बुधवार

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का उद्भव और विकास - भाग- 2

... इसी उर्वर पृष्ठभूमि में जब 1936 में प्रेमचन्द की अध्यक्षता में भारत में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन किया गया तो उसमें तब के युवा चिंतक कवि हृदय जयप्रकाश नारायण सहित बिहार और उत्तरप्रदेश के कई रचनाकारों ने सक्रिय प्रतिभागिता की। इस अधिवेशन में जयप्रकाश नारायण की महत्वपूर्ण भागीदारी के संबंध में प्रगतिशील आंदोलन के सबसे पुराने साथी और प्रलेस के संस्थापक महासचिव श्री सज्जाद जहीर ने अपनी पुस्तक ‘रौशनाई’ में लिखा है- ‘इस कान्फ्रेंस में बाबू जयप्रकाश नारायण और दिल्ली के हिन्दी साहित्यकार बाबू जैनेन्द्र कुमार मुझे खास तौर से याद हैं। जयप्रकाश नारायण बिहार में उनदिनों के उन नौजवान लेखकों और सोशलिस्ट तरक्की पसंदों का नेतृत्व कर रहे थे जिन्होंने बाद में रामवृक्ष बेनीपुरी  के संपादन में हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ का प्रकाशन किया।
    सज्जाद जहीर की पुस्तक ‘रौशनाई’ में प्रेमचंद का एक पत्र सज्जाद जहीर के नाम है जिसमें प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘ मैं पटना जाऊँगा और वहाँ भी प्रलेस की एक शाखा कायम करने की कोशीश करूँगा।’ आगे वे लिखते हैं -‘ बाबू जयप्रकाश नारायण से भी बातें हुई है। उन्होंने प्रोग्रसिव हफ्तावार हिन्दी में प्रकाशित करने की सलाह दी है, जिसकी उन्होंने काफी जरूरत बताई ।’
    इसी पुस्तक में यह भी लिखा गया है कि 1936 में सबसे पहले ‘प्रलेस’ ने ‘गोर्की दिवस’ का आयोजन किया था। इस दिन बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता, लाहौर, बंबई के साथ पटना में भी गोर्की दिवस मनाया गया। हिन्दी क्षेत्र में प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका तैयार करने में प्रेमचंद का महत्वपूर्ण योगदान है। इस अधिवेशन के बाद प्रगतिशील लेखक संघ का मुख्य कार्यालय प्रयाग में खोला गया और शीध्र ही उसकी शाखाएँ भारत के अनेक नगरों में काम करने लगी।
    सूबे में प्रगतिशील आंदोलन की नींव तो उसी समय पड़ गयी लेकिन इसका आधार 1944 में जाकर पटना में आयोजित प्रथम प्रांतीय सम्मेलन में मजबूत हुआ। वह ऐसा समय था जब पूरी दुनिया पर द्वितीय विश्वयुद्ध की काली छाया फैली थी।  युद्ध  की चिंताओं के बीच आयोजित उस प्रांतीय अधिवेशन का दस्तावेजी महत्व है। महाकवि दिनकर उसके स्वागताध्यक्ष थे। उनके स्वागत भाषण में युद्ध के विरूद्ध दुनिया भर के कवियों की चिंताओं की झलक मिलती है। प्रथम विश्वयुद्ध में राष्ट्रवाद की विचारधारा प्रवल थी और यूरोप के कवियों, कलाकरों ने भी उससे पे्ररित होकर अपना पक्ष रखा था। जबकि दूसरे युद्ध तक आते - आते शसकों की स्वार्थ लोलुपता सामने आ गयी थी। राष्ट्रवाद का विभ्रम टूट चुका था। कविता एक नयी जनक्रांति का आह्वान करने लगी थी, दिनकर ने उस पर गंभीर टिप्पणी की है। हिन्दी में आगे चलकर नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे कवियों ने इसी जनक्रांति की धारा को मजबूत किया।
    यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रगतिशील आंदोलन आजादी के बाद कई प्रकार के अन्तर्विरोधों का शिकार हो गया, जबकि 1946 में पूरे देश में बेहद मजबूत जनाधार बन चुका था। देश के बंटवारे का भी इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अन्ततः 1950 के दशक में जब डा. रामविलास शर्मा का... क्रमशः-

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